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कविता

छाई अब के धुंध घनी

माधव कौशिक


छाई अब के
धुंध घनी।

फैला घटाटोप
अंधियारा
हाथ, हाथ से ओझल है
समय नहीं कटता
काटे से
लम्हा लम्हा बोझल है
धरती प्यासी
अंबर प्यासा
बेशक दुनिया रक्त-सनी।

बंधुआ मजदूरों से बदतर
बीता जीवन होरी का
कोयल से भी काला निकला
भाग्य गाँव की गोरी का।
भूख पड़ी पल्ले गोबर के
और धनिया के - आगजनी।

 


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